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मृणाल पांडे की सहमति से भूत-प्रेत भगाए, अंधविश्वासों-बाबाओं से मुक्ति दिलाई

संभावना प्रकाशन, हापुड़ से एक बड़ी ही शानदार पुस्तक आई है ‘राह इनकी एक थी’. शानदार इसलिए कि इसमें लेखन और पत्राकारिता जगत से जुड़ी दिग्गज हस्तियों के किस्सों की भरमार है. पुस्तक के लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार, कथाकार और कवि विष्णु नागर.

‘राह इनकी एक थी’ दरअसल विष्णु नागर जी के संस्मरण और यात्रा वृतांतों का संग्रह है. इसी थीम पर विष्णु नागर की पिछले वर्ष पुस्तक आई थी ‘डालडा की औलाद’. संस्मरण की लंबी यात्रा को एक पुस्तक में नहीं समेटा जा सकता था, इसलिए यात्रा का दूसरा पढ़ाव ‘राह इनकी एक थी’ के रूप में हमारे सामने है.

‘राह इनकी एक थी’ पुस्तक में हिंदी साहित्य और पत्रकारिता जगत के ख्यात नाम है और उनसे जुड़ी उनकी स्मृतियां. पुस्तक में संस्मरणों की यात्रा शुरू होती है अज्ञेय जी से. पाठकों को विष्णु नागर के माध्यम से सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन अज्ञेय जी के बारे में काफी कुछ पढ़ने और जानने को मिलेगा. इस प्रकार पुस्तक के पन्नों को जब आप पलटना शुरू करेंगे तो आपको कृष्णा सोबती जी के दर्शन होंगे. रघुवीर सहाय का दो दशक का साथ मिलेगा. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं से गुजरते हुए आपकी अच्छे कवि लेकिन जटिल इनसान विष्णु खरे से भी भेंट होगी. जब पाठक विष्णु खरे जी से मिलकर आगे बढ़ता है तो जीवन के बड़े फैसले लेने वाले कवि नरेश सक्सेना मुस्कुराते हुए मिल जाएंगे.

साहित्य और पत्रकारिता की दुनिया के दिग्गजों से मुलाकात करते हुए जब आप आगे बढ़ते हैं तो निकल पड़ते हैं ‘एक नास्तिक की तीर्थयात्रा पर’. निश्चित यह पुस्तक पाठक को अपने पसंदीदा लेखक और पत्रकारों के नए चेहरे से रू-ब-रू करती है. किताब में विचरण करते हुए मेरा पांव अचानक ही गरिमामय लोकतांत्रिक व्यक्तित्व की स्वामिनी मृणाल पांडे को देखकर ठिठके गए. जैसा कि विष्णु जी उनके बारे में लिखते हैं कि ‘एक-दो बार उनसे आमना-सामना भी हुआ मगर वह परिचय में नहीं बदला’ ठीक उसी उन्हीं के हाथ से हिंदुस्तान का नियुक्ति पत्र मिलने और फिर इसके बाद उनकी पुस्तक ‘ध्वनियों के आलोक में स्त्री’ के प्रकाशन के दौरान कई बार भेंट तो हुई लेकिन परिचय नहीं हुआ. आखिर होता भी कैसे इतने बड़े व्यक्तित्व के सामने खुद को प्रस्तुत करना भी हर किसी के बस की बात थोड़े ही है. खैर जब किताब के सफ्हे पटलते हुए मृणाल जी के बारे में और कुछ भी जानने का मौका मिला तो सोचा क्यों ना इसे अपने पाठकों के साथ भी साझा किया जाए. तो प्रस्तुत है मृणाल पांडे जी के बारे में ‘राह इनकी एक थी’ पुस्तक का एक अंश-

गरिमामय लोकतांत्रिक व्यक्तित्व : मृणाल पांडे
हिन्दुस्तान अखबार का 2002 में प्रधान संपादक बनने से पहले मृणाल जी से मेरा कभी सीधा परिचय नहीं रहा. वैसे साहित्य और पत्रकारिता के कारण उनके नाम-काम से, हिंदी साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े हर व्यक्ति का उनसे परिचय था. एक-दो बार उनसे आमना-सामना भी हुआ मगर वह परिचय में नहीं बदला. हिन्दुस्तान अखबार में भी उनसे वास्ता इसलिए पड़ा कि मैं ‘नवभारत टाइम्स’ छोड़कर इस अखबार में लाया जा चुका था. जो मुझे इसमें लाए थे, वे तीन साल बाद इसके संपादक नहीं रहे. फिर दूसरे आए. वे दो साल रहे. फिर मृणाल जी आई, जो पहले भी इस अखबार से जुड़ी रही थीं मगर 1997 में मेरे इस अखबार में आने तक इसे छोड़ चुकी थीं. शायद उन्हें यह पसंद नहीं आया था कि अखबार के दो संपादक हों और उन्हें विचार-संपादक का पद दिया जाए, जिसकी भूमिका मुख्यतः संपादकीय और रविवारीय पृष्ठ तक सीमित रहती है. ऐसा मेरा अनुमान है. वास्तविकता कुछ और भी हो सकती है.

बहरहाल जब वह प्रधान संपादक होकर आईं तो अच्छा लगा कि कोई ढंग का पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस पद पर आया है. नौकरी ठीक से चल जाएगी. वैसे नौकरी अपनी गति से चल रही थी. मेरे काम में या मेरे लेखन में मृणाल जी को कोई दिलचस्पी हो सकती है, इसका कोई आभास नहीं था. जैसे मेरे दूसरे सहयोगी हैं, वैसे मैं भी उनके लिए एक हूं. नौकरी करने की यह स्थिति भी ठीक है, ऐसा मान रहा था. विशेष संवाददाता पद से ही अवकाश लेना है, यह भी मान चुका था.

उनके इस पद पर आए आठ-नौ महीने बीते होंगे कि एक दिन उन्होंने मुझे अपने कक्ष में बुलाया. पूछा कि क्या आप अखबार के रविवारीय पृष्ठों के संपादन का काम संभालना पसंद करेंगे? आपको एसोसिएट एडिटर का पद दिया जाएगा. यह पहला संकेत था कि वे मेरे बारे में सकारात्मक सोच रखती हैं. मने कुछ सोच कर कहा कि ठीक है. खैर यह बात बनी नहीं. उन्होंने मुझे बाद में बताया कि प्रबंधन का कहना है कि हम विशेष संवाददाता को सीधे इस पद पर पदोन्नत नहीं कर सकते. बात आई-गई हो गई. काम तो मुझे विशेष संवाददाता का भी पसंद था. इस काम के जरिए जीवन में काफी सीखने-समझने को मिला था. बस ये था कि मेरे बाद की पीढ़ी तब तक इस क्षेत्र में अपनी अच्छी तरह उपस्थिति जता चुकी थी. उधर टीवी चैनलवाले हर जगह उधम मचाए रहते थे. आगे-आगे कैमरे लेकर प्रेस कांफ्रेंस में खड़े हो जाते थे, न कुछ देखने देते थे, न सुनने. मंत्रियों और नेताओं को यह मीडिया बहुत रास आ रहा था. अखबारों की महत्ता उनकी नजरों में कम हो रही थी. वैसे संसद, मंत्रालयों, राजनीतिक दलों की कवरेज करते-करते भी काफी समय हो चुका था. अब सब रूटीन हो चला था, फिर भी आफिस में बैठे-बैठे काम करने से यह काम हर हाल में बेहतर था. इस बहाने किस्म-किस्म के लोगों से मिलना-जुलना होता था. अनुभव बढ़ता था. रचनात्मकता के लिए जाने-अनजाने सामग्री मिलती थी. शिखर राजनीति से लेकर समाज के निचले तबकों को निकट से समझने के मौके मिलते थे.

ख़ैर कुछ महीने और बीते.

फिर एक बार मृणाल जी ने मुझे याद किया. इस बार प्रस्ताव ‘कादम्बिनी’ के लिए था. उसके संपादक राजेन्द्र अवस्थी करीब पच्चीस साल से इस पद पर थे. उन्हें कोई हिला सकता है, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. ‘कादम्बिनी’ इतनी खराब पत्रिका हो चुकी थी कि उसी संस्थान की इस पत्रिका को पलट कर देखने तक को मन नहीं करता था. कहीं दिख गई तो विषय सूची देखकर पटक देता था. खैर मृणाल जी ने यह प्रस्ताव करते हुए जो बात कही, उससे हिम्मत हुई कि यह काम संभाला जा सकता है. उन्होंने कहा कि प्रधान संपादक के रूप में मेरा नाम रहेगा मगर आप अपने ढंग से पत्रिका निकालने के लिए स्वतंत्र होंगे. पहली बार बड़े पद के साथ काम करने की इतनी स्वतंत्रता का आश्वासन मिलना बड़ी बात थी.

खैर इस बार पहली बार वाली बाधा नहीं आई कि हम एसोसिएट एडिटर का पद इन्हें नहीं दे सकते. नियुक्ति पत्र जनवरी, 2003 से मिला मगर काम फरवरी से शुरू करने का मौका मिला. अवस्थी जी ने मालिकों से कहा- “कम-से-कम नये साल की शुरुआत में तो हमें विदा मत कीजिए. हमने इतने साल इस संस्थान की सेवा की है, वगैरह.” उनकी बात मान ली गई. मन में थोड़ी धुकधुकी भी थी कि कहीं किसी और बहाने ये मृणाल जी की योजना को फेल न कर दें!

यह पहले ही मालूम था कि संपादक हो या उसी तरह का कोई पद, नौकरी पक्की नहीं होती. मुझे तीन साल के ठेके पर यह नया काम मिला था. वेतन ज़रूर बढ़ा था. मैं अब तक बच्चों के शैक्षिक आदि खर्चों की तरफ से काफी निश्चिंत हो चुका था. सोचा, यह खतरा उठाया जा सकता है. अगर मैं अपने इस दायित्व में सफल नहीं रहा तो कम-से-कम मृणाल जी के रहते सड़क पर नहीं आऊंगा. अखबार में मुझे कुछ और दायित्व दे दिया जाएगा वरना फिर से विशेष संवाददाता के पद पर तो रख ही लिया जाएगा वरना जो होगा, देखा जाएगा. काम करने का एक मौका तो कम-से-कम मिल रहा है. मेरे कुछ मित्र और कुछ कनिष्ठ सहयोगी बहुत पहले अखबारों में संपादक का पद पा चुके थे. प्रस्ताव आने के बाद उस पत्रिका में नया कुछ करने की इच्छा जागने लगी.

बाकी मैंने ‘कादम्बिनी’ में आकर क्या ‘कमाल’ किए या नहीं किए, यह अलग विषय है. मृणाल जी की सहमति से भूत-प्रेत सब भगाए उसे अंधविश्वासों-बाबाओं से मुक्ति दिलाई. वैज्ञानिक समझ बढ़ाने की कोशिश की. ज्योतिष अंक के नाम पर ज्योतिष विरोधी अंक निकाला. हिंदी के श्रेष्ठ लेखकों से सहयोग लिया. उनकी पसंद की श्रेष्ठ कहानियां पाठकों को पढ़वाई, आदि-आदि. पहला अंक मार्च का था. 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था तो उससे संबंधित सामग्री छापी कवर पर पहली बार एक मेहनतकश औरत का चित्र छपा. अपनी इतनी प्रशंसा पर्याप्त से अधिक है.

मृणाल जी ने काम में हस्तक्षेप न करने का जो वायदा किया था, उस पर वह लगभग खरी उतरीं. मैं आगामी अंक की सामग्री का शिड्यूल बना कर उन्हें सूचनार्थ भेज देता था. कभी किसी बात पर उनसे सलाह करना जरूरी होता तो मिलने चला जाता. सामान्यतः मेरे सुझावों पर उनकी सहमति होती थी. एक बार विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने अपने छात्रों पर संस्मरण-श्रृंखला लिखने का प्रस्ताव किया. मैं उत्साहित था. फिर भी श्रृंखलाबद्ध ढंग से लिखने की बात थी तो मृणाल जी से पूछ लेना उचित समझा. उन्होंने भी इसका उसी उत्साह से स्वागत किया. बीच-बीच में रविवारीय पृष्ठ या पुस्तक समीक्षा के पृष्ठ देखने का मौका ‘नवभारत टाइम्स’ में पहले मिला था और फिर हिन्दुस्तान अखबार में भी कुछ समय मिला था मगर मुझे इतनी स्वतंत्रता कभी नहीं मिली थी, अगर मिली थी तो वह अधिक टिकाऊ साबित नहीं हुई.

‘संडे नई दुनिया’ नाम से रविवार को दिल्ली से ‘नई दुनिया’ अखबार के साथ पत्रिका प्रकाशित होती थी. उसका मैं बाकायदा पूर्ण संपादक बनाया गया था मगर वहां भी मेरी स्वतंत्रता बहुत जल्दी छिन गई, जबकि मैं ‘कादम्बिनी’ का काम संभालने के बाद वहां गया था. गया क्या था, संपादक ने भावुक आग्रह करके बुलाया था.

ख़ैर, वह अलग प्रसंग है. ‘कादम्बिनी’ की प्रधान संपादक वह थीं मगर चूंकि सारे निर्णय मेरे होते थे और मृणाल जी को उनका पूरा समर्थन हासिल था, इसलिए एसोसिएट एडिटर और बाद में कार्यकारी संपादक होकर भी लेखकों-पाठकों में मेरी छवि संपादक की रही. मुझे रचनाएं-लेख वगैरह के प्रकाशन की अनुमति मृणाल जी से लेनी नहीं पड़ती थी. आगामी अंक में क्या कवर स्टोरी या अन्य सामग्री होगी, यह निर्णय लेने के लिए भी मैं स्वतंत्र था. उन्होंने तो आरंभ में हर महीने संपादकीय लिखने में भी संकोच प्रकट किया था. वह चाहती थीं कि यह काम भी मैं ही किया करूं. मैंने ही कहा कि आपकी ख्याति है, उसका लाभ पत्रिका को मिलना चाहिए. मैं अंतिम पृष्ठ पर कुछ लिखा करता था.

‘कादम्बिनी’ में पदोन्नतियां भी मेरी सिफारिश पर हुई और नियुक्तियां भी. एक बार उपसंपादक पद पर नियुक्ति के लिए कोई सीधे उनके पास पहुंचा. उन्हें उसका काम पसंद आया मगर उन्होंने मुझे आदेश नहीं दिया कि इसको नियुक्त करना है. उन्होंने मात्र सुझाव दिया कि आप उनका काम देख लीजिए, पसंद आए तो रखिए वरना जरूरी नहीं. ख़ैर वह नियुक्ति मेरी सहमति से हुई और उस सहकर्मी ने इसके योग्य खुद को साबित किया. जेएनयू के एक छात्र आर्थिक रूप से उस समय इतने परेशान थे कि वे दो हज़ार मासिक की भी नौकरी करने को तैयार थे. उनकी नियुक्ति के समय जितनी तनख्वाह की मैंने सिफारिश की थी, उसे भी बढ़ा कर उन्हें नियुक्ति मृणाल जी ने दी, जिसकी कल्पना भी उन्हें नहीं रही होगी. उस समय चार में से तीन नियुक्तियां लेखकों की हुई, जिनमें हरेप्रकाश उपाध्याय, शशिभूषण द्विवेदी तथा पंकज पराशर थे. चौथी नियुक्ति ऋतु मिश्रा की हुई, जो सामाजिक चिंताओं से जुड़कर आज भी काम कर रही हैं.

एक बात मृणाल जी ने बिना कहे सबके सामने स्पष्ट कर रखी थी कि स्टाफ की जो भी समस्या होगी, उनका निवारण मेरे स्तर पर होगा. मृणाल जी इसका स्वागत नहीं करेंगी कि कोई सीधे उनके पास जाए और ऐसा केवल मेरे साथ नहीं था. उनके साथ काम करनेवाले बाकी वरिष्ठ सहयोगियों के साथ भी उनका यही रवैया था.

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इससे काम करने-करवाने में आसानी होती थी. वैसे उनका कुछ ऐसा रुआब भी था कि हर कोई सीधे उन तक पहुंचने का साहस भी नहीं कर सकता था.

नौकरी में थोड़ी भी समस्या न आए तो फिर नौकरी क्या! फिर भी उनके रहते मुझे कभी किसी बात के लिए प्रबंधकों से लड़ना-जूझना नहीं पड़ा. सारे मामले मृणाल जी अपने स्तर पर निबटा-सुलझा लेती थीं. यह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी आश्वस्ति थी. मुझे यह सब नहीं आता. मेरी इस नियुक्ति के समय भी मुझे किसी प्रबंधक या मालिक के सामने उपस्थित होकर अपनी योग्यता साबित करने के लिए साक्षात्कार नहीं देना पड़ा, न किसी से औपचारिक मुलाकात आवश्यक पड़ी.

विशेष संवाददाता के रूप में मेरी नियुक्ति के समय तब के संपादक ने मेरी भेंट संस्था की मालकिन शोभना भरतिया से करवाई थी. वही उनसे मेरी पहली और आखिरी भेंट रही. अलबत्ता श्रीमती भरतिया के पिता के. के. बिरला से दो बार संक्षिप्त सौजन्य भेंट हुई. वह ‘कादम्बिनी’ पढ़ा करते थे. उन्हें यह नया स्वरूप पसंद आया था, जबकि वह पूर्व संपादक के भी हितचिंतक रहे थे. जब कंपनी के नये प्रेसिडेंट नियुक्त होकर ज्वाइन करने आए तो वे मेरे कक्ष में भी मिलने आए मगर तब तक मैं कार्यालय पहुंचा नहीं था. बाद में उनसे भी कभी मिलने की जरूरत नहीं पड़ी. मैं उन्हें सूरत-शक्ल से भी नहीं जानता था. कभी लिफ्ट में या कहीं ओर दिखे भी होंगे तो मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे नहीं पहचाना होगा.

छोटी-मोटी समस्याएँ आईं. एक बार थोड़ी बड़ी समस्या थी मेरी नज़र में मगर वह ऐसी साबित नहीं हुई. शायद प्रबंधन की ओर से यह प्रस्ताव 2006 में आया कि ‘कादम्बिनी’ का आकार-प्रकार बदला जाए. कुछ और बदलाव भी किए जाएं, ताकि यह युवा पाठकों से जुड़ सके. मेरी समझ यह थी कि ‘कादम्बिनी’ का पॉकेट साइज आकार उसकी एक पहचान बन चुका है, उसका एक ख़ास पाठकवर्ग है. उसके स्वरूप को बदलने का पाठकों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है. फिर यह सांस्कृतिक-साहित्यिक-सामाजिक पत्रिका है. इसमें रोजगार, कंप्यूटर तकनालाजी आदि के स्तंभ जोड़ने से भी उसकी पहचान प्रभावित होगी. आकार बदलने का निर्णय का कारण विज्ञापन था. उस आकार के विज्ञापन मिलने में कठिनाई होने लगी थी. खैर अंततः मैंने मान लिया. सामग्री के स्तर पर जो और जोड़ा जाना था, वह भी जोड़ा गया. इससे न विज्ञापन बढ़ा, न सर्कुलेशन. प्रबंधन की दिलचस्पी ‘कादम्बिनी’ में रह नहीं गई थी. टाइम्स प्रबंधन की राह पर यह संस्थान भी चल पड़ा था. बताते हैं कि बिरला जी की चूंकि हिंदी पत्रिकाओं के प्रकाशन में रुचि थी, इसलिए इन्हें प्रकाशित किया जा रहा था. न विज्ञापन बढ़ाने का कोई प्रयत्न था, न प्रसार संख्या में वृद्धि का. संस्थान के हिंदी तथा अंग्रेजी अखबारों में हर महीने दो पत्रिकाओं का जो विज्ञापन दिया जाता था, वह भी बंद कर दिया गया.

धीरे-धीरे मृणाल जी के प्रति भी प्रबंधन का रुख बदल रहा है, यह मेरे आखिरी छह महीनों में स्पष्ट होने लगा था. हर बार दीपावली अंक में कुछ अतिरिक्त पृष्ठ जोड़े जाते थे. प्रबंधन से आसानी से इसकी अनुमति मिल जाती थी मगर आखिरी बार मृणाल जी के रिमाइंडरों का कोई असर नहीं हुआ. फिर मुझ पर ‘नई दुनिया’ ज्वाइन करने का बहुत अधिक मैत्रीपूर्ण दबाव था. एक तरफ ‘कादम्बिनी’ छोड़ने में नैतिक दुविधा थी, तो दूसरी ओर दैनिक अखबार से फिर से जुड़ने का आकर्षण भी था. मुझे पहला बड़ा मौका तो मृणाल जी ने ही दिया था. न ऐसा मौका पहले नभाटा में मिला था, न इससे पहले हिन्दुस्तान में. बहुत सी दुविधाओं के बीच नये अखबार में जाने का फैसला लिया. मृणाल जी को इसका बुरा लगना स्वाभाविक था. उनके कहे, ये शब्द आज भी गूंज रहे हैं- “आप भी अब छोड़ कर चले.”

अपने मूल्यवान साथियों की विदाई के समय वह विभिन्न विभागों के प्रमुखों को विदाई भोज दिया करती थीं. संयोग से जिस दिन के लिए उन्होंने मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा, उस दिन मुझे एक कार्यक्रम में जयपुर जाना था, जिसकी स्वीकृति मैंने बहुत पहले दे रखी थी. मैंने यह बात उन्हें बताई. उन्होंने कुछ नहीं कहा. एक बार बात टली तो फिर टल ही गई.

खैर मृणाल जी का लोकतांत्रिक रुख मुझे हमेशा याद रहेगा. रघुवीर सहाय और राजेन्द्र माथुर के बाद मैंने उन्हें इस तरह पाया. कई बार मैंने देखा कि वह अपने कक्ष में बैठी कोई पुस्तक पढ़ रही हैं. मुझे आश्चर्य होता था कि अनेक संस्करणों के अखबार की मुखिया निश्चित होकर किताब कैसे पढ़ सकती हैं? मैं उनकी जगह होता तो शायद ऐसा न कर पाता. इसका कारण यह था कि उन्होंने जिन्हें जिम्मेदारी सौंप रखी थी, उन पर वह पूरा विश्वास करती थीं. वैसे उनके समय ही हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन सब रिलांच हुए थे, उनका रूपांतरण हुआ था. हिन्दुस्तान के कुछ नये संस्करण निकले थे. इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने काफी रुचि ली थी, समय दिया था, सक्रिय भागीदारी की थी.

वह अपनी रुचियों में अत्यंत परिष्कृत हैं, चाहे साड़ियों का चुनाव हो या उनका व्यवहार या पठन-पाठन का प्रश्न हम कुछ वरिष्ठ सहयोगियों को वह दीपावली के अवसर पर कोई छोटा-सा मगर सुंदर-सा उपहार देती थीं. वह निकटता में भी एक दूरी बना कर रखने की कला जानती हैं. दो-तीन बार कुछ मित्रों-परिचितों ने कहा कि आप तो उनके निकट हैं, उनसे यह या वह कह दीजिए. मैंने हमेशा इससे मना किया. और कहा कि वह इस मामले में बहुत ‘चूजी’ हैं. बहुत कम कहीं आती-जाती हैं. मेरे कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

उनकी विद्वत्ता असंदिग्ध है. भारतीय शास्त्रीय तथा अन्य अनेक कलाओं में वह दीक्षित हैं. उनकी पठन गति काफी तेज है. भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनकी पैठ है. उन्होंने इसे बाकायदा सीखा है कार्टूनिस्ट मित्र राजेन्द्र घोड़पकर भी शास्त्रीय संगीतप्रेमी हैं. इन दोनों को मैंने संगीत पर बात करते देखा-सुना है. एक-दो बार मृणाल जी को भाषण देते हुए भी सुना है, जिसमें वह प्रवीण हैं. दिल्ली आने के बाद ऐसा उनका समय कम ही बीता होगा, जब वह किसी पद पर नहीं रहीं. उनकी मांग हमेशा पत्रकारिता में रही. अभी-अभी तक वह नेशनल हेराल्ड ग्रुप की प्रधान संपादक थीं, जो उन्होंने स्वेच्छा से छोड़ा. उनका निर्णय था कि पचहत्तर की उम्र के बाद वह नौकरी नहीं करेंगी. कोरोना के कारण इसमें कुछ विलंब हुआ. मोदी सरकार से जो पत्रकार लोहा ले रहे हैं, उनमें उनका नाम प्रमुख है. एक लेखक के रूप में उनकी क्या जगह है या नहीं है, इसके लिए वह कभी चिंतित नहीं दिखीं. कभी उनका लहजा शिकायती नहीं रहा. चुपचाप काम करने में उनका विश्वास है. ऐसा एक भी उदाहरण शायद ही मिले कि उन्होंने एक लेखक के रूप में अपने को प्रमोट करने के लिए कुछ किया हो. पद का लाभ उठाया हो. गरिमा खोई हो. यह दुर्लभ होता हुआ गुण है.

वह जीवन के 76 वर्ष पूरे कर चुकी हैं. जब भी मिला हूं उनसे (कोरोना से पहले) वह स्वस्थ, चुस्त-दुरुस्त तथा हमेशा की तरह गरिमामय दिखाई दी हैं. वह लंबे समय तक ऐसी ही बनी रहें, सक्रिय रहें, यही कामना है.

उनके पति अरविंद पांडे, सरकार के तमाम बड़े पदों पर रहे हैं मगर उनमें इसकी ऐंठ नहीं देखी. मैंने उन्हें हमेशा विनम्र और मितभाषी पाया.

पुस्तकः राह इनकी एक थी
लेखकः विष्णु नागर
प्रकाशकः संभावना प्रकाशन, हापुड़
मूल्यः 200 रुपये

Tags: Books, Hindi Literature, Hindi Writer, Literature



Source : https://hindi.news18.com/news/literature/mrinal-pande-jivan-parichay-vishnu-nagar-book-raah-inki-ek-thi-sambhavna-prakashan-horror-bhoot-stories-6453993.html

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