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वे मुस्काते फूल नहीं, जिनको आता है मुरझाना : महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा का जन्म साल 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था. उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मिशन स्कूल इंदौर में हुई. 22 साल की उम्र में महादेवी वर्मा बौद्ध-दीक्षा लेकर भिक्षुणी बनना चाहती थीं, लेकिन महात्मा गांधी से मिलने के बाद अपना निर्णय बदल दिया और समाज सेवा में लग गईं. एक जगह महादेवी वर्मा लिखती भी हैं, “अपने विद्रोही स्वभाव के कारण मैं भिक्षुणी नहीं हो सकी, क्योंकि मेरा मन ऐसे साधक से दीक्षा लेने को प्रस्तुत नहीं हुआ जो स्त्री के मुख-दर्शन तक ही सीमित था. आश्चर्य तो यह है, कि युग-युगांतर से हमारा तप और साधना का क्षेत्र नारी के आतंक से आतंकित रहता आया है, चाहे वह मानवी हो या अप्सरा. बापू का उपदेश ‘तू अपनी मातृभाषा से अपनी गरीब बहिनों को शिक्षा देने का कार्य करे, तो अच्छा है.’ यह मेरे मन के अनुकूल सिद्ध हुआ और तब अर्थ और प्रतिष्ठा की दृष्टि से विश्विविद्यालय के प्रलोभनीय आमंत्रण को अस्वीकार कर मैंने कुछ संबलहीन विद्यार्थिनियों के साथ साधनहीन विद्यापीठ को अपना कर्मक्षेत्र बनाया.” और यही वजह थी, कि महादेवी वर्मा ने नारी शिक्षा प्रसार के लिए प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की और प्रधानाचार्या पद की बागडोर संभाली, जिसके सारे अभाव उनके स्नेह और श्रद्धा ने भर दिए.

महादेवी वर्मा की संपूर्ण काव्य-यात्रा न सिर्फ आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास बनने की साक्षी हैं, बल्कि भारतीय महिमा का भी जीवंत प्रतीक है. उनकी कविताएं हिंदी साहित्य की एक सार्थक कालजयी उपलब्धि हैं. छायावाद की इस कवयित्री की हिंदी साहित्य में अपनी एक अनूठी पहचान है. आप भी पढ़ें उनके काव्य-संग्रह ‘आत्मिका’ से कुछ चुनिंदा कविताएं. इस किताब में महादेवी वर्मा की वे रचनाएं संग्रहीत हैं, जो उनकी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय देती हैं. आत्मिका को ‘राजपाल प्रकाशन’ ने प्रकाशित किया है, जिसके कई संस्करण प्रकाशित हुए.

1)
मधुबेला है आज
मधुबेला है आज
अरे तू जीवन-पाटल फूल!

आई दुख की रात मोतियों की देने जयमाल
सुख की मंद बतास खोखली पलकें देदे ताल;

डर मत रे सुकुमार!
तुझे दुलराने आये शूल!

अरे तू जीवन-पाटल फूल!

भिक्षुक सा यह विश्व खड़ा है पाने करुणा प्यार;
हंस उठ रे नादान खोल दे पंखुरियों के द्वार;

रीते कर ले कोष
नहीं कल सोना होगा धूल!

अरे तू जीवन-पाटल फूल!

2)
झिलमिलाती रात
झिलमिलाती रात मेरी!

सांझ के अंतिम सुनहले
हास सी चुपचाप आकर,
मूक चितवन की विभा-
तेरी अचानक छू गई भर;

बन गई दीपावली तब आंसुओं की पांत मेरी!

अश्रु घन के बन रहे स्मित-
सुप्त वसुधा के अधर पर
कंज में साकार होते
वीचियों के स्वप्न सुंदर,

मुस्कुरा दी दामिनी में सांवली बरसात मेरी!

क्यों इसे अंबर न निज
सूने हृदय में आज भर ले?
क्यों न यह जड़ में पुलक का,
प्राण का संचार कर ले?

है तुम्हारे श्वास के मधु-भार-मंथर वात मेरी!

3)
क्यों मुझे प्रिय!
क्यों मुझे प्रिय हो न बंधन!

बन गया तम-सिन्धु का, आलोक सतरंगी पुलिन-सा;
रजभरे जग बाल से हैं; अंक विद्युत का मलिन-सा;

स्मृति पदल पर कर रहा अब
वह स्वयं निज रूप-अंकन!

चांदनी मेरी अमा का, भेंट कर अभिषेक करती;
मृत्यु-जीवन के पुलिन दो आज जागृत एक करती,

हो गया अब दूत प्रिय का
प्राण का संदेश, स्पंदन!

सजनि मैंने स्वर्ण-पिंजर में प्रलय का वात पाला;
आज पुंजीभूत तम को कर, बना डाला उजाला;

तूल से उर में समा कर
हो रही नित ज्वाल चंदन!

आज विस्मृत-पंथ में निधि से मिले पद-चिन्ह उनके
वेदना लौटा रही है विफल खोये स्वप्न गिनके;

घुल हुई इन लोचनों में
चिर प्रतीक्षा पूत अंजन!

आज मेरा खोज-खग गाता चला लेने बसेरा;
कह रहा सुख अश्रु से ‘तू है चिरंतन प्यार मेरा’,

बन गए बीते युगों के
विकल मेरे श्वास स्पंदन!

बीन-बंदी तार की झंकार है आकाशचारी;
धूलि के इस मलिन दीपक से बंधा है तिमिरहारी

बांधती निर्बंध को मैं
बंदिनी निज बेड़ियां गिन!

नित सुनहली सांझ के पद से लिपट आता अंधेरा!
पुलख-पंखी विरह पर उड़ आ रहा है मिलन मेरा;

कौन जाने है बसा उस पार
तम या रागमय दिन!

4)
मेरे गीले नयन
प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती!

श्वास में सपने कर गुम्फित,
बंदनवार वेदना-चर्चित,
भर दुख से जीवन का घट नित
मूक क्षणों में मधुर भरूंगी भारती!

दृग मेरे दो दीपक झिलमिल,
भर आंसू का स्नेह रहा ठुल,
सुधि तेरी अविराम रही जल,
पद-ध्वनि पर आलोग रहूंगी वारती!

यह लो प्रिय! निधियोंमय जीवन,
जग अक्षय स्मृतियों का धन,
सुख-सोना करुणा-हीरक-कण,
तुमझे जीता आज तुम्हीं को हारती!

5)
अधिकार
वे मुस्काते फूल, नहीं-
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना;

वे नीलम के मेघ, नहीं-
जिनको है घुल जाने की चाह,
वह अनंत- ऋतुराज, नहीं-
जिसने देखी जाने की राह.

वे सूने से नयन, नहीं-
जिनमें बनते आंसू-मोती,
वह प्राणों की सेज, नहीं
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती;

ऐसा तेरा लोक, वेदना-
नहीं नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं-
जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तोरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरे मिटने का अधिकार!

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Tags: Books, Hindi Literature, Hindi poetry, Hindi Writer, Literature


Source : https://hindi.news18.com/news/literature/poem-story-gazal-mahadevi-verma-hindi-poet-mahadevi-verma-ka-kavita-sangrah-aatmika-mahadevi-verma-ki-kavitaayein-hindi-kavi-hindi-ki-kavitaayein-chhayavaadi-kavi-6471023.html

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