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दास्तान-गो : वह फ़क़ीर के पीछे-पीछे चला, फ़क़ीरी ओढ़ी और ‘रफ़ी’ हो गया

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… 

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जनाब, अजब शख़्स था वह और ग़ज़ब शख़्सियत. एक मर्तबा ख़ुद मुस्कुराते हुए बताया था उसने, ‘मैं कोटला सुल्तान सिंह (अमृतसर, पंजाब) में पैदा हुआ. उसके बाद हम लाहौर चले गए. मेरी उम्र 10-12 बरस रही होगी, तभी उस वक़्त जिस मोहल्ले में हम रहते थे, वहां एक रोज़ सुबह के वक़्त कोई फ़क़ीर आया. गा-गाकर पैसे मांगता था. मगर मुझे उसका गाना इतना अच्छा लगा कि मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया. फिर, जब भी वह घर के सामने निकलता, मैं उसके पीछे हो लेता. जहां तक वह जाता, मैं भी जाता. जो वह गाता मैं भी उसे साथ-साथ गाया करता. उसका गाना, उसकी धुन आज भी याद है मुझे- खेदन दे दिन चार नीं माए, खेदन दे दिन चार… ये गाना गाता था वह. वहीं से गाने का शौक़ लगा मुझे. और ऐसा कि फिर न पढ़ाई-लिखाई में मन लगा, न दूसरी चीज़ में. पूरी ज़िंदगी गाना गाया बस. यही मेरा काम रहा, यही पहचान. यही आदत, यही इबादत’.

ज़नाब ये ख़ुद-बयानी जो है न, सच है. लेकिन आठ आने भर की. बाकी के आठ आने की सच्चाई यूं है कि इस शख़्स को उस फ़क़ीर से सिर्फ़ गाने का सुर ही नहीं लगा था, ‘फ़क़ीरी की लौ’ भी आ लगी थी. वह भी इस तरह कि मां-बाप के ‘फीको’ से दुनिया वालों के मोहम्मद रफ़ी और फिर ‘रफ़ी साहब’ हो जाने तक का सफ़र कर लेने बावजूद, ब-तौर गुलूकार (गायक) ‘रफ़ी’ यानी बलंद होने के बावजूद, ब-तौर शख़्स ‘रफ़ी’ मतलब श्रेष्ठ होने के बावजूद, ब-तौर शख़्सियत ‘रफ़ी’ माने शरीफ़ हो रहने के बावजूद, हमेशा ख़ुद को ना-चीज़ ही माना. किसी से कुछ नहीं मांगा. किसी से कुछ नहीं चाहा. कोई ऐसा न हुआ, जिससे कोई बड़ी उम्मीद पाली हो और कोई ऐसा भी न हुआ, जिसके वे ज़दीद (विरोधी) हुए हों. उनकी दोस्ती सिर्फ़ ख़ुद के फ़न से रही और याराना ख़ुदा से. जनाब, ये ख़ासियतें तो फ़क़ीरों की ही होती हैं न? उनकी इन ख़ासियतों की पुख़्तगी करतीं मिसालें भी हैं. ये आज तक उन्हें जानने वालों की ज़ुबानी कही जाती हैं.

लता और रफी की जोड़ी ने कई हिट गाने दिए

इन्हीं में से एक रफ़ी-साहब के साहबज़ादे शाहिद की ज़ुबानी, ‘अब्बा के इंतिक़ाल से कुछेक साल पहले की बात है. हम लोग छोटे ही थे. कि एक रोज़ अब्बा घर लौटे तो उन्होंने बड़े जोश के साथ हम बच्चों को अपने पास बुलाया और बोले- तुम लोगों को पता है, आज मैं किसके साथ गाना गाकर आया हूं. हमने कहा- नहीं. तो वे कहने लगे- फिल्मों के बड़े हीरो अमिताभ बच्चन के साथ. उनकी बात सुनकर हम सब चहक पड़े. वाक़ि’आ ‘नसीब’ फिल्म के वक़्त का है. यह 1981 में आई थी. इसमें अब्बा ने अमिताभ बच्चन साहब के साथ ‘चल मेरे भाई’ गाना गाया है. इसी से जुड़ा एक और वाक़ि’आ है. हमें बाद में पता चला कि मनमोहन देसाई साहब ने इस गाने की रिकॉर्डिंग के लिए दिन में एक बजे का वक़्त रखा था. अब्बा और अमिताभ साहब दोनों वक़्त के पाबंद. दिन में साढ़े बारह बजे स्टूडियो में पहुंच गए. लेकिन वहां अब्बा ने देखा कि अमिताभ साहब कुछ घबराए से हैं. तो अब्बा ने उनसे वज़ह पूछी. तब अमिताभ साहब ने बताया कि- दरअस्ल, जब मुझसे कहा गया कि मुझे आपके साथ गाना है तो मैं रात भर सो नहीं पाया. जवाब में अब्बा बोले- अरे, मुझे ख़ुद रातभर यह सोचकर बेचैनी होती रही कि कल मैं आप जैसे बड़े अदाकार के साथ गाना गाने वाला हूं. ऐसे थे रफ़ी-साहब. आज हमें अचरज होता है ये सोचकर कि अमिताभ साहब के साथ गाना गाने की बात चहक कर हमें सुनाने वाला शख़्स था कौन! वह, जो ख़ुद अपने फ़न, अपनी शोहरत की बलंदी पर था!’.

अब ख़ुद अमिताभ साहब की ज़ुबानी, ‘मुझे साल तो ठीक से याद नहीं. इतना याद है कि हम लोग एक शो लेकर गए थे सिलिगुड़ी. दो दिन का प्रोग्राम था. पहले दिन उसमें रफ़ी-साहब को बुलाया था. दूसरे दिन एक और गायक आने वाले थे. तो साहब पहले दिन रफ़ी-साहब आए. अच्छा शो हुआ और उसके बाद वे होटल रवाना हो गए. अगले दिन उन्हें वापस बंबई जाना था. सो, वे तय वक़्त पर हवाई-अड्‌डे के लिए निकल गए. इधर, हम लोगों को ख़बर मिली कि दूसरे दिन जिन्हें आना था, वे नहीं आ पा रहे हैं. हमारे तो हाथ-पैर फूल गए. पूरे किए-कराए पर पानी फिरने वाला था. साख दांव पर लगी थी. उस वक़्त हमें कुछ सूझा नहीं और हम हवा की रफ़्तार से हवाई-अड्‌डे की तरफ़ दौड़े. हमारे लिए रफ़ी-साहब ही एक आख़िरी उम्मीद थे उस वक़्त. तो साहब, जब तक हम हवाई-अड्‌डे पहुंचे, रफ़ी-साहब जहाज में बैठ चुके थे. उड़ान के लिए चंद मिनट बचे थे. हम भागे-दौड़े हवाई-अड्डे के अधिकारियों के पास गए. उनसे मिन्नत की कि हमें एक बार जहाज में भीतर जाकर रफ़ी-साहब से बात करने दी जाए. ख़ुश-क़िस्मती से वे लोग तैयार हो गए. हम भीतर गए और रफ़ी साहब को माज़रा बताया. उनसे गुज़ारिश की कि अगर आप रुक जाएं तो हमारी इज़्ज़त बच जाएगी. साहब, आप अचरज मानेंगे कि उन्हें एक मिनट नहीं लगा अपनी सीट से उठकर हमारे साथ चल देने में. एक सवाल तक नहीं किया. मैं सच कहूं आपसे, मैंने आज तक फिल्मी-दुनिया में रफ़ी-साहब सा सज्जन पुरुष नहीं देखा’.

जनाब, अमिताभ साहब की तरह ही हिन्दी फिल्मों के एक और अदाकार हुए हैं जीतेंद्र. बताया करते हैं, ‘मैं साधारण परिवार से फिल्मों में आया. जब ज़िंदगी थोड़ी बेहतर हुई तो हमने एक फिल्म कंपनी शुरू की. तिरुपति पिक्चर्स. उसके बैनर तले फिल्म बनाई ‘दीदार-ए-यार’. ये मेरे ज़िंदगी की सबसे ख़र्चीली फिल्म थी. और सबसे बड़ी फ्लॉप भी. उसे बनाने में चार-पांच साल लगे थे हमें. पहला गाना हमने रफ़ी-साहब की आवाज़ में रिकॉर्ड कराया था. उसके लिए रफी साहब ने चार हजार रुपए लिए थे. फिल्म जब पूरी होने को आई तो उसका आखिरी गाना किशोर कुमार और रफ़ी साहब की आवाज़ों में रिकॉर्ड हुआ. रिकॉर्डिंग के बाद प्रोडक्शन वाला मेरे पास आया और पूछने लगा कि रफ़ी साहब को क्या देना है? मैंने कहा- जो किशोर-दा को दिया है, वही दो. तब उसने बताया कि किशोर-दा ने 20 हजार रुपए लिए हैं. मैंने कहा कि ठीक है, रफी-साहब को भी 20 हजार रुपए दो. लिहाज़ा, उन्हें उतना भुगतान कर दिया गया. रफ़ी-साहब गाना रिकॉर्ड करने के बाद सीधे घर चले जाते थे. उस वक़्त भी चले गए. मगर कुछ घंटों बाद उनके साले-साहब मेरे सामने आ खड़े हुए. वे रफ़ी-साहब के सेक्रेटरी भी थे. मुझसे वे कहने लगे- आप रफ़ी साहब से बात कर लीजिए. वह बहुत गुस्से में हैं. मैं घबराया कि भई, ऐसी क्या ग़लती हो गई मुझसे कि रफ़ी-साहब नाराज़ हो गए. वे तो कभी किसी पर गुस्सा करते नहीं. मैंने घबराते-घबराते फोन लगाया. पूछा- कि होया रफी-साहब. वे पंजाबी में ही बात करते थे. और मुझे बहुत प्यार करते थे. तो साहब, दूसरी तरफ़ से डपटने वाले अंदाज़ में रफ़ी-साहब बोले- ओए जित्ते! बहुत पैसे आ गए हैं तेरे पास? सुन, मैंने 16 हजार रुपए भेजे हैं. चुपचाप रख ले. इसके बाद उन्होंने फोन रख दिया. कोई शख़्स कैसे बड़ा बनता है, ये मिसाल है उसकी. मैं कभी भूल नहीं सकता’.

जनाब दो मिसालें हैं. बार-बार दी जाती हैं. अलबत्ता, ज़्यादातर मौकों पर इनसे जुड़ी तस्वीर अधूरी ही पेश होती है. मुकम्मल तस्वीर पर ग़ौर फ़रमाएं. वह रफ़ी-साहब की शख़्सियत के मुख़्तलिफ़ पहलुओं पर रोशनी डालेगी. इनमें से एक जुड़ती है, बलवंत राज चोपड़ा यानी बीआर चोपड़ा से. साल 1957 में चोपड़ा-साहब की फिल्म आई थी, ‘नया दौर’. ख़ूब पसंद की गई. इसके गाने रफ़ी-साहब ने ही गाए थे. जैसे- ‘साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा’, ‘मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार’, ‘उड़ें जब-जब ज़ुल्फ़ें तेरी’ और ‘ये देश है वीर जवानों का’, वग़ैरा. ये गाने भी काफ़ी चले. बताते हैं, इसके बाद चोपड़ा-साहब ने रफ़ी-साहब से कहा, ‘एक क़रार कर लेते हैं. इसमें बंदोबस्त होगा कि आप सिर्फ़ ‘बीआर फिल्म्स’ की फिल्मों में ही गाएंगे’. मगर रफ़ी-साहब ने मना कर दिया.

मन्ना डे भी थे रफी के दीवाने

रफ़ी-साहब का कहना था, ‘मेरी आवाज़ ‘अवाम के लिए है. उसकी ख़ुशी के लिए मुझे जब भी अच्छा गाना मिलेगा, मैं उसे गाऊंगा’. लेकिन उनकी ये बात चोपड़ा-साहब को नाग़वार गुज़री. तैश में आकर उन्होंने कह दिया, ‘मैं फिल्मी दुनिया में नया रफ़ी खड़ा दूंगा. और देखता हूं तुम्हें काम कौन देता है अब’. चोपड़ा-साहब गुस्से वाले आदमी थे. असर भी उनका ख़ूब होता था. मुमकिन है, इसी वज़ह से रफ़ी-साहब को काम मिलना कम हो गया, कुछ वक़्त के लिए. उधर, एक और गुलू-कार महेंद्र कपूर को चोपड़ा-साहब आगे बढ़ाने लगे. हालांकि दिलचस्प ये कि महेंद्र कपूर ख़ुद रफ़ी-साहब को गायकी में अपना उस्ताद मानते थे. लेकिन जनाब, चोपड़ा-साहब अपनी पर क़ायम रहे. वक़्त गुज़रता रहा और एक वक़्त आया जब ‘वक़्त’ की तैयारी शुरू हुई. ‘वक़्त’ फिल्म (1965) की.

अब तक चार-पांच साल का अरसा बीत चुका था. बीआर चोपड़ा अड़े थे पर उनके छोटे भाई यश राज बढ़ना चाहते थे. वे अलग फिल्म-कंपनी बना चुके थे, ‘यशराज फिल्म्स’. साथ ही वे गायकी में रफ़ी-साहब के होने मतलब भी ख़ूब समझते थे. लिहाज़ा, तय कर लिया उन्होंने कि इस फिल्म में रफ़ी-साहब से ही गवाएंगे. इसी के मुताबिक उन्होंने बड़े भाई का लिहाज़ रखते हुए उन्हें इसकी इत्तिला दी. मालूम नहीं, बीते अरसे में कौन सा तजरबा बीआर चोपड़ा-साहब के ज़ेहन में आ चुका था अब तक, उन्होंने मंज़ूरी दे दी. इसके बाद ‘वक़्त’ फिल्म का पहला गाना रिकॉर्ड हुआ, ‘वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज, वक़्त की हर शय ग़ुलाम’. इसी नग़्मे में एक मिसरा है, ‘आदमी को चाहिए, वक़्त से डरकर रहे, कौन जाने किस घड़ी, वक़्त का बदले मिज़ाज’. बस जनाब, यूं बिना कुछ कहे रफ़ी-साहब का ज़वाब बीआर चोपड़ा तक पहुंच गया, गोया.

दूसरी मिसाल लता मंगेशकर से जुड़ी है. वाक़ि’आ साल 1962-63 का. उस वक़्त फिल्म बनाने वाले कुछ बड़े मूसीक़ारों को उनकी फीस के अलावा संगीत की रॉयल्टी में से भी हिस्सा दिया करते थे. तब लता जी ने मांग रखी कि गुलू-कारों को भी रॉयल्टी से हिस्सा मिलना चाहिए. दूसरे कई गायकों ने उनसे ‘हां’ मिलाई. लेकिन रफ़ी-साहब ने उनका साथ नहीं दिया. वे मानते थे कि उन्हें उनके गाने की फीस मिल गई, इतना काफ़ी है. इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं. पर इससे लता जी का इत्तिफ़ाक न था. सो, दोनों के बीच दूरी ऐसी बढ़ी कि उन्हें लंबे अरसे तक साथ में गाना ही नहीं गाया.

हालांकि, ये लता जी ही थीं, जिन्होंने इस दुनिया से रफ़ी-साहब की रुख़्सती के बाद कहा, ‘क्या कहूं मैं, भगवान के आदमी थे वे. उनमें कोई एब न था. रफ़ी-साहब जैसी आवाज़ उनसे पहले न कभी सुनी गई और न अगले सौ साल में सुनी जाएगी’. जनाब, यही तारीख़ थी 31 जुलाई की. साल 1980 का. जब ऊपर वाले को भी ‘फ़क़ीर-तबीयत रफ़ी’ की ज़रूरत आ पड़ी थी शायद.

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अगली कड़ी में पढ़िए (कल, एक अगस्त को)

* दास्तान-गो : वह ‘दुश्मन’ भी रफ़ी-साहब के बेज़ान ज़िस्म से लिपटकर रोया

Tags: Death anniversary special, Hindi news, Mohammad Rafi, News18 Hindi Originals

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