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प्रेमचंद जयंती : …हमसे न पूछिए किसी मुंशी के बारे में, हम क्या जानें

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हां…पढ़ा तो है, किताबों में प्रेमचंद को। शायद हिंदी के बड़े साहित्यकार हैं, लेकिन इससे ज्यादा नहीं बता पाऊंगी। ज्यादा जानना है तो गूगल में सर्च कर लेते हैं। संवाददाता के सवाल पर ऐसा कहने वाली दिल्ली मेट्रो में सफर कर रही श्वेता रमण ही नहीं है, जो प्रेमचंद नाम में रुचि नहीं रखतीं, बल्कि उन जैसे अनेक युवाओं का ऐसा ही कुछ कहना था। नोएडा सेक्टर-12 निवासी अभय सिंह इंजीनियर हैं और ऑफिस के बाद खाली समय में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि होगा कोई मुंशी हम नहीं जानते…। 

मेट्रो में ही सफर कर रही एक युवती के अनभिज्ञता जाहिर करने पर पास में बैठे सौरभ ने मुस्कुराते हुए कहा, अरे, नमक का दरोगा नहीं पढ़ा तुमने कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। हालांकि सौरभ जैसे युवा कम ही मिले, जिन्हें प्रेमचंद की कहानियों की विषय वस्तु का ज्ञान था। ई-रिक्शा में बैठी नैना ने बताया, मुंशी प्रेमचंद नाम से वाकिफ तो हूं, लेकिन इनकी रचनाएं   कैसी थीं पता नहीं…। 

दरअसल  आज के दौर में जो युवा किताबों में रुचि रखते हैं वह नए लेखकों को पढ़ना पसंद करते हैं। ज्यादातर युवाओं ने कहा, वह चेतन भगत, रॉबिन शर्मा जैसे लेखकों को पढ़ते हैं। मुंशी प्रेमचंद पर मौजूदा दौर के प्रामाणिक कलमकार कमल किशोर गोयनका इसकी वजह भी बताते हैं। उनका मानना है कि आज के समय में युवाओं के बीच प्रेमचंद की लोकप्रियता नहीं है। युवा वर्ग का केवल सिलेबस तक से पढ़ने-लिखने से वास्ता रह गया है। वह मोबाइल पर सारी चीजें पढ़कर देखकर सीख रहे हैं।  केवल हिंदी साहित्य के विद्यार्थी और मुंशी प्रेमचंद को चाहने वाले कुछ खास लोग ही उन्हें पढ़ना चाहते हैं। 

1925 में दो खंडों वाली रंगभूमि की एक साथ 5,000 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। आज बड़े साहित्यकारों की इतनी प्रतियां एक साथ नहीं छपती है, खासकर पहले संस्करण की। उस जमाने में प्रेमचंद को एक साथ प्रकाशक की तरफ से 1008 रुपये की रॉयल्टी मिली थी। तब प्रेमचंद की लोकप्रियता आम जनता में थी। कुछ लोग अभी भी हैं, जो नई पीढ़ी तक प्रेमचंद की पुस्तकें पहुंचाना चाहते हैं।
– कमल किशोर गोयनका, साहित्यकार एवं शिक्षाविद्

प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार थे, जो हिंदी के रचनाकारों के बीच भी खारिज किए जाते रहे हैं, लेकिन वह विस्थापित भी हो जाते हैं। युवा पीढ़ी नए समय को देखते हुए बदलती है। बहुत उत्साह  से नजरअंदाज करती है, लेकिन एक समय आता है कि उन्हें ज्ञात हो जाता है कि साहित्य के बीच बने रहना है तो प्रेमचंद जैसे महान लेखकों को पढ़ना बेहद जरूरी है। शहरी युवाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों के युवा प्रेमचंद को अत्यधिक पढ़ते हैं और प्रेमचंद एक ऐसे महान व्यक्ति हैं कि वह अपनी जगह हर पीढ़ी के साथ खुद बना ही लेते हैं।  
– मदन कश्यप हिंदी साहित्यकार

रोजगारपरक शिक्षा के आगे युवा साहित्य को महत्व नहीं दे रहे हैं। वो सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़कर अंक लाने तक सिमट गए हैं। न तो स्कूल शिक्षक और न ही अभिभावक कोशिश करते हैं कि बच्चों में शुरू से साहित्य को लेकर रुचि पैदा हो। साहित्य हमें नैतिक मूल्यों और ईमानदारी के आदर्श परिप्रेक्ष्य को अपने  जीवन में समाहित करने के लिए बल देता है। 
-प्रोफेसर गोविंद प्रसाद गोयल आईएमएस, नोएडा
 
सोशल मीडिया में व्यस्त युवा साहित्य से दूर होता जा रहा है। पहले साहित्य को पढ़ने में युवा रुचि दिखाते थे, जबकि अब बहुत कम हैं, जिनके हाथों में किताबें देखने को मिलती है। इसकी वजह टीवी, इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट भी हैं। खाली बैठा युवा किताबों की जगह इंटरनेट पर सर्च करने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। 
– डॉ. राजीव गुप्ता, उच्च शिक्षा अधिकारी, मेरठ मंडल, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय

आज का युवा, साहित्य से विमुख होता जा रहा है। उसे केवल रोजगारपरक कोर्स करने होते हैं, ताकि कोर्स पूरा करने के तुरंत बाद नौकरी मिल सके। स्कूल कॉलेजों में भी साहित्य के प्रति उदासीनता है। भारतीय लोक जीवन के कथाकार प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों के साहित्य के अध्ययन से चिंतन की गहराई और वैचारिक उच्चता के साथ लोक-सांस्कृतिक से जुड़ाव भी महसूस होता है।
– डॉ. राजा राम यादव, वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, दिल्ली मेट्रो

मुंशी प्रेमचंद को बेशक आम लोगों का साहित्यकार माना जाता है, लेकिन मौजूदा दौर में युवाओं के बीच उनकी चमक फीकी पड़ रही है। मेट्रो शहरों की युवा पीढ़ी को प्रेमचंद उतने ही याद हैं, जितने भर से उनका काम चल जाता है। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई करने वाले युवा हों या प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले अभ्यर्थी, परीक्षा में कामयाब होने तक वह प्रेमचंद को साथ रखते हैं। इसके बाद की उनके कालजयी उपन्यासों का भान भी उनको नहीं है। मौजूदा दौर में एक तरह से सिलेबस ने ही प्रेमचंद को युवाओं में जिंदा रखा है।

9 वीं कक्षा में छात्रों को भाषा के रूप में हिंदी, संस्कृत या फिर विदेश भाषा में से किसी एक का चुनाव करना होता है। बड़ी संख्या में ऐसे विद्यार्थी हैं, जो विदेशी भाषा को प्राथमिकता देते हैं, ताकि उच्च शिक्षा में फायदा मिल सके। नोएडा सेक्टर-27 स्थित लिब्रा बुक्स स्टोर के संचालक बताते हैं कि  वह कई सालों से दुकान चला रहे हैं। प्रेमचंद की किताबों में दिलचस्पी अगर है तो केवल 40 से ज्यादा उम्र वालों को। 

ज्यादातर युवा पाठ्यक्रम या प्रतियोगी परीक्षाओं से जुड़ीं किताबें ही खरीदने उनकी दुकान पर आते हैैं। पुराने लेखकों की पुस्तकों में उनकी रुचि नहीं है। वहीं अट्टा मार्केट स्थित प्रिंस बुक स्टोर के संचालक  कहते हैं कि वह किताबों के स्टॉक में प्रेमचंद की किताबें भी लेकर आते हैं, लेकिन दिनभर में एक भी नहीं बिकती। कभी-कभार कोई खरीदने आता भी है तो युवा नहीं होती।

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हां…पढ़ा तो है, किताबों में प्रेमचंद को। शायद हिंदी के बड़े साहित्यकार हैं, लेकिन इससे ज्यादा नहीं बता पाऊंगी। ज्यादा जानना है तो गूगल में सर्च कर लेते हैं। संवाददाता के सवाल पर ऐसा कहने वाली दिल्ली मेट्रो में सफर कर रही श्वेता रमण ही नहीं है, जो प्रेमचंद नाम में रुचि नहीं रखतीं, बल्कि उन जैसे अनेक युवाओं का ऐसा ही कुछ कहना था। नोएडा सेक्टर-12 निवासी अभय सिंह इंजीनियर हैं और ऑफिस के बाद खाली समय में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि होगा कोई मुंशी हम नहीं जानते…। 

मेट्रो में ही सफर कर रही एक युवती के अनभिज्ञता जाहिर करने पर पास में बैठे सौरभ ने मुस्कुराते हुए कहा, अरे, नमक का दरोगा नहीं पढ़ा तुमने कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। हालांकि सौरभ जैसे युवा कम ही मिले, जिन्हें प्रेमचंद की कहानियों की विषय वस्तु का ज्ञान था। ई-रिक्शा में बैठी नैना ने बताया, मुंशी प्रेमचंद नाम से वाकिफ तो हूं, लेकिन इनकी रचनाएं   कैसी थीं पता नहीं…। 

दरअसल  आज के दौर में जो युवा किताबों में रुचि रखते हैं वह नए लेखकों को पढ़ना पसंद करते हैं। ज्यादातर युवाओं ने कहा, वह चेतन भगत, रॉबिन शर्मा जैसे लेखकों को पढ़ते हैं। मुंशी प्रेमचंद पर मौजूदा दौर के प्रामाणिक कलमकार कमल किशोर गोयनका इसकी वजह भी बताते हैं। उनका मानना है कि आज के समय में युवाओं के बीच प्रेमचंद की लोकप्रियता नहीं है। युवा वर्ग का केवल सिलेबस तक से पढ़ने-लिखने से वास्ता रह गया है। वह मोबाइल पर सारी चीजें पढ़कर देखकर सीख रहे हैं।  केवल हिंदी साहित्य के विद्यार्थी और मुंशी प्रेमचंद को चाहने वाले कुछ खास लोग ही उन्हें पढ़ना चाहते हैं। 

1925 में दो खंडों वाली रंगभूमि की एक साथ 5,000 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। आज बड़े साहित्यकारों की इतनी प्रतियां एक साथ नहीं छपती है, खासकर पहले संस्करण की। उस जमाने में प्रेमचंद को एक साथ प्रकाशक की तरफ से 1008 रुपये की रॉयल्टी मिली थी। तब प्रेमचंद की लोकप्रियता आम जनता में थी। कुछ लोग अभी भी हैं, जो नई पीढ़ी तक प्रेमचंद की पुस्तकें पहुंचाना चाहते हैं।

– कमल किशोर गोयनका, साहित्यकार एवं शिक्षाविद्

प्रेमचंद ऐसे साहित्यकार थे, जो हिंदी के रचनाकारों के बीच भी खारिज किए जाते रहे हैं, लेकिन वह विस्थापित भी हो जाते हैं। युवा पीढ़ी नए समय को देखते हुए बदलती है। बहुत उत्साह  से नजरअंदाज करती है, लेकिन एक समय आता है कि उन्हें ज्ञात हो जाता है कि साहित्य के बीच बने रहना है तो प्रेमचंद जैसे महान लेखकों को पढ़ना बेहद जरूरी है। शहरी युवाओं की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों के युवा प्रेमचंद को अत्यधिक पढ़ते हैं और प्रेमचंद एक ऐसे महान व्यक्ति हैं कि वह अपनी जगह हर पीढ़ी के साथ खुद बना ही लेते हैं।  

– मदन कश्यप हिंदी साहित्यकार

रोजगारपरक शिक्षा के आगे युवा साहित्य को महत्व नहीं दे रहे हैं। वो सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़कर अंक लाने तक सिमट गए हैं। न तो स्कूल शिक्षक और न ही अभिभावक कोशिश करते हैं कि बच्चों में शुरू से साहित्य को लेकर रुचि पैदा हो। साहित्य हमें नैतिक मूल्यों और ईमानदारी के आदर्श परिप्रेक्ष्य को अपने  जीवन में समाहित करने के लिए बल देता है। 

-प्रोफेसर गोविंद प्रसाद गोयल आईएमएस, नोएडा

 

सोशल मीडिया में व्यस्त युवा साहित्य से दूर होता जा रहा है। पहले साहित्य को पढ़ने में युवा रुचि दिखाते थे, जबकि अब बहुत कम हैं, जिनके हाथों में किताबें देखने को मिलती है। इसकी वजह टीवी, इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट भी हैं। खाली बैठा युवा किताबों की जगह इंटरनेट पर सर्च करने को ज्यादा प्राथमिकता देता है। 

– डॉ. राजीव गुप्ता, उच्च शिक्षा अधिकारी, मेरठ मंडल, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय

आज का युवा, साहित्य से विमुख होता जा रहा है। उसे केवल रोजगारपरक कोर्स करने होते हैं, ताकि कोर्स पूरा करने के तुरंत बाद नौकरी मिल सके। स्कूल कॉलेजों में भी साहित्य के प्रति उदासीनता है। भारतीय लोक जीवन के कथाकार प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों के साहित्य के अध्ययन से चिंतन की गहराई और वैचारिक उच्चता के साथ लोक-सांस्कृतिक से जुड़ाव भी महसूस होता है।

– डॉ. राजा राम यादव, वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, दिल्ली मेट्रो

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